शरद पूर्णिमा क्या है, क्यों मनातें है, जाने चमत्कारी वरदान

अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा या कोजागिरी पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। साल 2019 में यह 13 अक्टूबर दिन रविवार को मनाई जाएगी | इसे रास पूर्णिमा या कुछ क्षेत्रों में इस व्रत को कौमुदी व्रत भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा को माँ लक्ष्मी के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है| इस दिन चन्द्रमा व भगवान विष्णु एवं मां लक्ष्मी का पूजन, व्रत कथा पढ़ी जाती है। धर्मग्रंथों के अनुसार इसी दिन चन्द्र अपनी 16 कलाओं से परिपूर्ण होते हैं।

शरद पूर्णिमा का महत्व

एक साहुकार को 2 पुत्रियां थीं। दोनों पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थीं, लेकिन बड़ी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा। इसका परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी संतान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक करने से तुम्हारी संतान जीवित रह सकती है। वह पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत तो रहने लगी लेकिन विधिपूर्वक नहीं किया। बाद में उसे एक लड़का पैदा हुआ, जो कुछ दिनों तक जीवित रहा लेकिन बाद में फिर से मर गया। उसने लड़के को एक पाटे (पीढ़े) पर लेटाकर ऊपर से कपड़ा ढंक दिया। फिर बड़ी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पाटा दे दिया। बड़ी बहन जब उस पर बैठने लगी, तो उसका घाघरा बच्चे को छू गया। बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा।तब बड़ी बहन ने कहा कि तुम मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता। तब छोटी बहन बोली कि यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। और फिर उसने तभी से शरद पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक रहने लगी उसके बाद उसकी सभी संताने जीवित रहती थी | इसी प्रकार यह पारंपारिक तभी से चली आ रही है।

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औषधि वरदान है शरद पूर्णिमा की रात

शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है। दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है।

यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है। खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है। वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है।

शरद पूर्णिमा मानाने की विधि

  • स्वयं स्वच्छ वस्त्र धारण कर अपने आराध्य देव को स्नान कराकर उन्हें सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें।
  • अंब, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से अपने आराध्य देव का पूजन करें।
  • इसके साथ गोदुग्ध से बनी खीर में घी तथा शकर मिलाकर पूरियों की रसोई सहित अर्द्धरात्रि के समय भगवान का भोग लगाएं।
  • फिर तिलक करने के बाद गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें।
  • गेहूं के गिलास पर हाथ फेरकर मिश्राणी के पांव का स्पर्श करके गेहूं का गिलास उन्हें दे दें।
  • स‍‍भी श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित करें और रात्रि जागरण कर भगवद् भजन करें।
  • चांद की रोशनी में सुई में धागा अवश्य पिरोएं।

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