बस्ते का बढ़ता बोझ

देश की सरकार जहाँ एक तरफ पूरे देश को डिजिटल बनाने में लगी है, वहीं दूसरी तरफ स्कूल के बच्चों की किताबों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्राइमरी स्कूलों में तो बच्चों को इतनी किताबे लेकर जाना पड़ता है की ऐसा लगता है की छोटे बच्चों के बैग में भरी किताबों का वजन उनके वजन से अधिक है। ऐसा लगता है किताबों के बोझ से उनकी लम्बाई बढ़ना रुक जाएगी। बात सिर्फ प्राइमरी स्कूलों की नहीं है, आज बड़े-बड़े कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी किताबों की संख्या बढ़ रही है।

आज बच्चे इसकी वजह से बहुत ही तनावग्रस्त रहते है स्कूलों में इतने लिखित कार्य और प्रोजेक्ट्स देने लगे है की बच्चे हमेशा उसी के तनाव में रहते है। बच्चो को खेल-कूद और मनोरंजन करने का समय ही नहीं मिलता है। अगर उनके माता-पिता भी खेलने-कूदने के लिए बोलते है। तो वो चाह कर भी मनोरंजन नहीं कर पाते है। क्योकि उनके पास स्कूल का इतना ज्यादा काम रहता है की वे उसी में ही व्यस्त रहते है।

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अगर हम बात करे कुछ वर्षों पहले की तो पहले के बच्चे अपने स्कूल से इतना परेशान नहीं रहते थे वे खेल-कूद और मनोरंजन पर ज्यादा ध्यान देते थे जिसका परिणाम यह मिलता था की पहले के बच्चों का स्वास्थ्य अब के बच्चों से बहुत बेहतर रहता था। आज के बच्चे इन सब चीजों से वंचित रहते है जिसके कारण उनका स्वास्थ्य जल्दी खराब होने लगता है। जिसका एक जीता-जगता उदाहरण आज के बच्चों की आँखों पर चश्मा बहुत ही जल्दी लग जाता है।

आज के स्कूलों में पारम्परिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का बोल-बाला भी नहीं रह गया है। और अगर कार्यक्रम कराये भी जाते है तो वो कार्यक्रम राजनीति और भ्रष्टाचार से सम्बंधित होते है। जिनमे कोई मनोरंजन नहीं रहता है। पहले के जो सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। उनमे मनोरंजन होता था, और आनंद आता था। जिससे बच्चों का दिमाग तनाव ग्रस्त नहीं रहता था। लेकिन आज के बच्चों को स्कूलों में इतनी किताबे पकड़ा दी गई हैं की वे अपनी पढाई से ही परेशान रहते हैं।और यही कारण है की आज के बचे किन्ही अन्य जरूरी कामो पर ध्यान नहीं दे पाते है। जिससे की वो अपने आप को पढाई के अलावा अन्य क्षेत्रों में प्रतिभाशाली बना सके।

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